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वि पिप्रो॒रहि॑मायस्य दृ॒ळ्हाः पुरो॑ वज्रि॒ञ्छव॑सा॒ न द॑र्दः। सुदा॑म॒न्तद्रेक्णो॑ अप्रमृ॒ष्यमृ॒जिश्व॑ने दा॒त्रं दा॒शुषे॑ दाः ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi pipror ahimāyasya dṛḻhāḥ puro vajriñ chavasā na dardaḥ | sudāman tad rekṇo apramṛṣyam ṛjiśvane dātraṁ dāśuṣe dāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि। पिप्रोः॑। अहि॑ऽमायस्य। दृ॒ळ्हाः। पुरः॑। व॒ज्रि॒न्। शव॑सा। न। द॒र्द॒रिति॑ दर्दः। सुऽदा॑मन्। तत्। रेक्णः॑। अ॒प्र॒ऽमृ॒ष्यम्। ऋ॒जिश्व॑ने। दा॒त्रम्। दा॒शुषे॑। दाः॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:20» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वज्रिन्) शस्त्र और अस्त्रों को धारण करनेवाले (सुदामन्) उत्तम प्रकार से दाता राजन् ! आप (अहिमायस्य) मेघ का ढाँप लेना जैसे वैसे कपटता जिसकी उस (पिप्रोः) व्यापक की (दृळ्हाः) दृढ़ (पुरः) नगरियों को (शवसा) बल से (न) नहीं (वि, दर्दः) विशेष नष्ट कीजिये और जो (अप्रमृष्यम्) नहीं सहने योग्य (दात्रम्) दान को (ऋजिश्वने) सरलता आदि गुणों के बढ़ानेवाले (दाशुषे) दान देने योग्य पुरुष के लिये (दाः) दीजिये (तत्) उस (रेक्णः) धनदान को हम लोगों के लिये भी दीजिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - राजा को चाहिये कि छल आदि का त्याग कर और अपने नगरों को दृढ़ करके कभी छेदन न करे और सुपात्र के लिये दान दे और कुपात्र का तिरस्कार करे ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे वज्रिन्त्सुदामन् राजँस्त्वमहिमायस्य पिप्रोर्दृळ्हाः पुरः शवसा न वि दर्दः। यदप्रमृष्यं दात्रमृजिश्वने दाशुषे दास्तद्रेक्णोऽस्मभ्यमपि देहि ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) (पिप्रोः) व्यापकस्य (अहिमायस्य) अहेर्मेघस्य मायाच्छादनमिव कापट्यं यस्य तस्य (दृळ्हाः) (पुरः) नगरीः (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रभृत् (शवसा) बलेन (न) निषेधे (दर्दः) विदारयेः (सुदामन्) सुष्ठु दातः (तत्) (रेक्णः) धनम् (अप्रमृष्यम्) अप्रसह्यम् (ऋजिश्वने) ऋज्वादिगुणवर्धकाय (दात्रम्) दानम् (दाशुषे) दातुं योग्याय (दाः) देहि ॥७॥
भावार्थभाषाः - राज्ञा छलादिकं विहाय स्वकीयानि नगराणि दृढानि निर्माय कदाचिच्छेदनं नैव कार्यं सुपात्राय दानं देयं कुपात्रश्च तिरस्करणीयः ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजाने छळ इत्यादीचा त्याग करावा. आपल्या नगरांना दृढ करावे. त्यांचा नाश कधी करू नये. सुपात्रांना दान देऊन कुपात्राचा तिरस्कार करावा. ॥ ७ ॥